About Puja
वैष्णव धर्म के परम पवित्र ग्रन्थों में श्रीमद्भागवत् महापुराण का स्थान मूधन्य है। श्रीमद्भागवत् का प्रवचन, अनेक रीतियों में किया गया है। श्रीमद्भागवत् के कतिपय अंशों में वैदिक शब्दों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। पञ्चम स्कन्ध मे भरतोपाख्यान ब्राह्मण ग्रन्थों की शैली का अनुसरण करता है। अलङ्कार प्रचुर शैली का भी अनेक स्थलों में प्रयोग किया गया है तथा दर्शनिक स्थलों में दर्शन की पद्धति से गूढ विषयों को प्रकाशित किया गया है। भगवान् वेदव्यास के द्वारा विरचित इस महापुराण को पारमहंस संहिता के नाम से भी जाना जाता है। पुराण के समस्त लक्षण इस ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं। सामान्यतया 'पुराणं पञ्च- लक्षणम्' यह उक्ति प्रसिद्ध है, अर्थात् पुराण के पाँच लक्षण हैं :-
सर्ग: प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरित चैव पुराण पञ्चलक्षणम्।
सर्ग = सृष्टिकी उत्पत्ति, प्रतिसर्ग = प्रलय के अनन्तर पुनः सृष्टि की उत्पत्ति, वंश = राजकुलवर्णन अथवा महापुरुषों का चरित्र वर्णन, मन्वन्तर = मनु का काल और वंशानुचरितं = वंश का इतिहास |
इसके अतिरिक्त विशेष रूप से पुराण के दस लक्षण प्रस्तुत शास्त्र में उपवर्णित हैं। सर्ग, विसर्ग (प्रतिसर्ग) स्थिति = ऋत एवं सत् द्वारा जगत् की व्यवस्था, पोषण = ईश्वर के अनुग्रह से प्रजा का परिपालन, ऊति = जगद्रचना का कारण, मन्वन्तर = मनु का मार्ग अथवा काल, ईशानुचरित = सूर्य एवं चन्द्रवंश का वर्णन, निरोध = दुष्टराजाओं का विध्वंस, मुक्ति = मोक्ष, अश्रय = श्रीकृष्ण के प्रति भक्त का आत्मसमर्पण ।
पुराण के उक्त दशों लक्षण श्रीमद्भागवत् महापुराण में विद्यमान है। दशलक्षणात्मक यह महापुराण भक्त जनों के मन को श्रीकृष्ण में सन्निविष्ट करने वाला है। प्राचीन काल से ही वैदिक साहित्य की दार्शनिक विचारधारा भारतीय जीवन में अभिव्याप्त है, यही विचार-धारा उपनिषदों से परिपुष्ट होकर षड्दर्शन के रूप में समृद्ध हुई। वैदिक काल के अनन्तर आगम शास्त्र की विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ। इस विचार धारा में पञ्चरात्र के सिद्धान्त, तान्त्रिक प्रक्रिया एवं वैष्णवों की भक्ति रसाप्लावित सूक्तिया आती हैं। प्रस्तुत महापुराण में दोनों ही विचार धाराओं का संगम दृष्टिगोचर होता है। इस पुराण में सामान्यतया समन्वय के सिद्धान्त का समर्थन किया गया है। चार वर्णों में विभक्त हमारे समाज में सामञ्जस्य स्थापित करने के लिए भक्ति ही मात्र एक परम साधन है, इस तथ्य का सूक्ष्मदृष्टि से निरीक्षण कर भगवान् वेदव्यास जी ने भक्तिरस का प्रस्रवण किया है। जिस प्रकार से भ्रमर पद्म संस्थित मधु का पान करता हुआ वहीं रमण करता है अन्यत्र नहीं ।
एवमेव श्रीकृष्ण चरणकमल के मधुपान करने वाले भक्तगण जो कि रसास्वाद के लम्पट होते हैं, वे श्रीकृष्ण चरण में ही रमण करते हैं अन्यत्र नहीं । यथा सती स्त्रियाँ अपने सत्पति को सेवा एवं भक्ति से वश में करती हैं, उसी प्रकार श्री हरि में निबद्ध हृदय सत्पुरुष भक्ति भाव से श्रीहरि को वश में कर लेते हैं और वह भक्ति नवधा होती है - श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्यभाव सख्य (मैत्रीभाव) एवं आत्मनिवेदन यह नवधा भक्ति है।
कलियुग में भक्ति को ही बलवती माना गया है। कर्मबन्ध मोचन के लिए एक मात्र भक्ति ही सहज साधन है। भक्ति का आश्रय लेकर सभी वर्ण भगवत् सानिध्य को प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। चारों युगों में अधम कलियुग भी भक्तिगुण के कारण गौरव की प्राप्ति करता है। परमैश्वर्यशाली देवगण भी कलियुग में अपने जन्म की इच्छा करते हैं, जिसके द्वारा भक्ति के बल से वे भगवत् प्राप्ति में समर्थ होते हैं। श्रीमद्भागवत् की महत्ता पर भगवान् वेदव्यास जी कहते हैं-
श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं
यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते।
तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं
तच्छृण्वन् विपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः ॥
श्रीमद्भागवत् महापुराण परम पवित्र एवं निर्मल ग्रन्थ है, जो कि वैष्णव जनों को अत्यन्त प्रिय है, इस शास्त्र में एकमात्र परमहंस जनोचित विशुद्धज्ञान विद्यमान है। यह ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति का अनुपम संगम है तथा निष्कामता का आविष्कार करने वाला है। इस महाशास्त्र का भक्ति भाव से श्रवण, मनन एवं पाठ करने वाला मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है।
श्रीमद्भागवत् महापुराण को अष्टादशसाहस्री पारमहंसी संहिता कहा जाता है। अर्थात् यह शास्त्र अठारह हजार श्लोकों में पूर्णता को प्राप्त हुआ है। द्वादश स्कन्धों में इस महाशास्त्र को विभक्त किया गया है। वास्तव में यह सुधारस का समुद्र ही है जिसमें अवगाहन करने से समस्त पाप, ताप तथा संताप क्षीण हो जाते हैं तथा जीवन शुद्ध पवित्र मङ्गलमय हो जाता है।
Process
श्रीमद्भागवत् महापुराण मूल पाठ पारायण में होने वाले प्रयोग या विधि:-
- स्वस्तिवाचन एवं शान्तिपाठ
- प्रतिज्ञा सङ्कल्प
- गणपति गौरी पूजन
- कलश स्थापन एवं वरुणादि देवताओं का पूजन
- पुण्याहवाचन एवं मन्त्रोच्चारण अभिषेक
- षोडशमातृका पूजन
- सप्तघृतमातृका पूजन
- आयुष्यमन्त्रपाठ
- सांकल्पिक नान्दीमुखश्राद्ध (आभ्युदयिकश्राद्ध)
- नवग्रह मण्डल पूजन
- अधिदेवता, प्रत्यधिदेवता आवाहन एवं पूजन
- पञ्चलोकपाल,दशदिक्पाल, वास्तु पुरुष आवाहन एवं पूजन
- रक्षाविधान
- प्रधान देवता पूजन
- विनियोग,करन्यास, हृदयादिन्यास
- ध्यानम्, स्तोत्र पाठ
- पंचभूसंस्कार, अग्नि स्थापन, ब्रह्मा वरण, कुशकण्डिका
- आधार-आज्यभागसंज्ञक हवन
- घृताहुति, मूलमन्त्र आहुति, चरुहोम
- भूरादि नौ आहुति स्विष्टकृत आहुति, पवित्रप्रतिपत्ति
- संस्रवप्राशन, मार्जन, पूर्णपात्र दान
- प्रणीता विमोक, मार्जन, बर्हिहोम
- पूर्णाहुति, आरती, विसर्जन
Benefits
श्रीमद्भागवत् महापुराण का माहात्म्य -
- वैष्णव जन भागवत् धर्म का अवलम्बन लेकर , माया एवं मोह का निराश (समापन) करने में जिस शास्त्र के द्वारा सक्षम होते हैं, वह अनुपम सुधासागर स्वरूप श्रीमद्भागवत् ही है।
- सांसरिक भयों को विनष्ट करने वाला तथा भगवान् श्रीकृष्ण के नाम, रूप, लीला और धाम में प्रीति का जागरण कराने वाला यह सर्वोत्तम पुराण है।
- सुधा सुलभ देवगणों के लिए भी श्रीमद्भागवत् कथा सुदुर्लभ है। गौरव की दृष्टि से इस शास्त्र के समक्ष अन्य सभी ग्रन्थ लघुता को प्राप्त होते हैं।
- यह भागवत् महापुराण भगवान् श्रीकृष्ण का तेज ही है, जो स्वधाम गमन के पूर्व उद्धव जी के आग्रह पर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने तेज को श्रीमद्भागवत् महापुराण में स्थापित किया।
- श्रीमद्भागवत् भगवान् श्रीकृष्ण का साक्षात् वाङ्मय श्रीविग्रह है।
- ज्ञान एवं वैराग्य की जननी भगवती भक्ति ही हैं, जो इस भागवत् कथा सार से प्रादुर्भूत् हुईं, भक्ति की प्राप्ति होने पर ज्ञान एवं वैराग्य का स्वयमेव प्रादुर्भाव हो जाता है और उस भक्ति को प्रदान करने वाला यह अद्वितीय महापुराण है।
- गङ्गा आदि पवित्र नदियों की भी सेव्य भक्ति ही है, जो श्रीमद्भागवत् की सार स्वरुपा है।
- कलियुग में तप, योगमार्ग एवं सदाचार दुर्लभ हो गया है, तप एवं योगमार्ग भवबन्धन से मुक्ति प्राप्त कराने वाले तो अवश्य हैं किन्तु सर्वजन सध्य नही, एकमात्र भक्ति ही सर्वसाध्य मङ्गलकारी साधन है।
- भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (भगवान् का साक्षात्कार) कराने वाली है, जो इस ग्रन्थ का मूल विषय है।
निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा।
वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा ।।
अर्थात् जिस प्रकार सभी नदियों में गङ्गा, देवताओं में अच्युत श्रीकृष्ण, वैष्णवों में भगवान् शङ्कर श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार पुराणों में श्रीमद्भागवत् शास्त्र सर्वश्रेष्ठ है।
Puja Samagri
वैकुण्ठ के द्वारा दी जाने वाली पूजन सामग्री:-
- रोली, कलावा
- सिन्दूर, लवङ्ग
- इलाइची, सुपारी
- हल्दी, अबीर
- गुलाल, अभ्रक
- गङ्गाजल, गुलाबजल
- इत्र, शहद
- धूपबत्ती,रुईबत्ती, रुई
- यज्ञोपवीत, पीला सरसों
- देशी घी, कपूर
- माचिस, जौ
- दोना बड़ा साइज,पञ्चमेवा
- सफेद चन्दन, लाल चन्दन
- अष्टगन्ध चन्दन, गरी गोला
- चावल(छोटा वाला), दीपक मिट्टी का
- सप्तमृत्तिका
- सप्तधान्य, सर्वोषधि
- पञ्चरत्न, मिश्री
- पीला कपड़ा सूती,
हवन सामग्री एवं यज्ञपात्र :-
- काला तिल
- चावल
- कमलगट्टा
- हवन सामग्री, घी,गुग्गुल
- गुड़ (बूरा या शक्कर)
- बलिदान हेतु पापड़
- काला उडद
- पूर्णपात्र -कटोरी या भगोनी
- प्रोक्षणी, प्रणीता, स्रुवा, शुचि, स्फय - एक सेट
- हवन कुण्ड ताम्र का 10/10 इंच या 12/12 इंच
- पिसा हुआ चन्दन
- नवग्रह समिधा
- हवन समिधा
- घृत पात्र
- कुशा
- पंच पात्र
यजमान के द्वारा की जाने वाली व्यवस्था:-
- वेदी निर्माण के लिए चौकी 2/2 का - 1
- गाय का दूध - 100ML
- दही - 50ML
- मिष्ठान्न आवश्यकतानुसार
- फल विभिन्न प्रकार ( आवश्यकतानुसार )
- दूर्वादल (घास ) - 1मुठ
- पान का पत्ता - 07
- पुष्प विभिन्न प्रकार - 2 kg
- पुष्पमाला - 7 ( विभिन्न प्रकार का)
- आम का पल्लव - 2
- विल्वपत्र - 21
- तुलसी पत्र -7
- शमी पत्र एवं पुष्प
- तांबा या पीतल का कलश ढक्कन सहित
- थाली - 2 , कटोरी - 5 ,लोटा - 2 , चम्मच - 2 आदि
- अखण्ड दीपक -1
- पानी वाला नारियल
- देवताओं के लिए वस्त्र - गमछा , धोती आदि
- बैठने हेतु दरी,चादर,आसन
- गोदुग्ध,गोदधि